- फिरोजपुर शहर और छावनी को जोड़ती बस्ती टैंकां वाली के रहने वाले धार्मिक नेता अनिल शर्मा और चंद्र मोहन जोशी बरसों से कर रहे युवाओं को संस्कृति से जोड़ने के प्रयास
मनीष रोहिल्ला/फिरोजपुर
युवाओं को अपनी संस्कृति की तरफ वापस मोड़ लाने के लिए किए जा रहे प्रयासों की कड़ी में मंगलवार को फिरोजपुर के दो विद्वानों अनिल शर्मा और चंद्र मोहन जोशी ने आह्वान किया है कि 14 फरवरी को वैलेंटाइन डे यानि प्रेमी-प्रेमिका के दिन के रूप में न मनाकर मातृ-पितृ पूजन दिवस के रूप में अहमियत दी जानी चाहिए। दुनिया के तमाम रिश्ते मतलब के हैं, जबकि माता-पिता का रिश्ता ही इकलौता रिश्ता है, जिसमें स्वार्थ के लिए कोई जगह नहीं होती। आज के दिन माता-पिता को फूल भेंट करोगे तो दुआ ही मिलेगी-दगा नहीं। इस रिश्ते से बढ़कर दुनिया में कोई रिश्ता नहीं होता, जो आपकी परवाह करे।
ध्यान रहे, पश्चिमी सभ्यता के वशीभूत होकर पिछले कुछ बरसों से भारतीय युवा वर्ग में 14 फरवरी को वैलेंटाइन्स डे के रूप में मनाने का चलन अप्रत्याशित रूप से बढ़ा है। शिक्षण संस्थाओं के रिक्त स्थानों, पार्कों और भ्रमण लायक ऐतिहासिक स्थानों पर युवाओं की भीड़ देखने को मिल जाती है। न सिर्फ गुलाब के प्राकृतिक फूलों की, बल्कि बनावटी फूलों की बिक्री भी बेतहाशा रूप से बढ़ जाती है। दूसरी ओर इसमें कोई दो राय नहीं कि उठती जवानी के जोश में नर और मादा का एक-दूसरे की तरफ आकर्षित हो जाना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। अक्सर इस परिपक्व दौर में युवा एक-दूसरे के प्रति आकर्षित तो हो जाते हैं, लेकिन फिर कुछ ही दिन के बाद यह प्यार धोखे में, छलावे में बदल जाता है। यही कारण है कि हमें अपनी मूल संस्कृति से जुड़ने की जरूरत है। अनेक सामाजिक और धार्मिक संस्थाएं इस दिशा में काम भी कर रही हैं।
इसी बीच शब्द चक्र न्यूज के हवाले से फिरोजपुर शहर और छावनी को जोड़ती बस्ती टैंकां वाली के ब्राहण सभा के सरपरस्त अनिल शर्मा (जोली स्टूडियो वाले) और जाने-माने आर्य समाजी चंद्र मोहन जोशी ने युवाओं को अपनी संस्कृति की तरफ लौटने का आह्वान किया है। उन्होंने कहा कि युवाओं को वैलेंटाइन्स डे की बजाय इस दिन को मातृ-पितृ पूजन दिवस के रूप में मनाना चाहिए। हमारी जिंदगी में प्रसन्नता लाने और समस्याओं को सुलझाने में माता-पिता का सर्वाधिक योगदान होता है। ये निस्वार्थ भाव से अपनीं सतान का लालन-पालन करते हैं। वैसे यह रिश्ता कभी गुलाब के एक डंठल का भी मोहताज नहीं होता, फिर भी अगर कुछ देना ही चाहते हैं तो युवा अपने माता-पिता को आदर का-भावनाओं का उपहार दें। माता-पिता ही पहले गुरु होते हैं। आज भी अगर दो शब्द बोल पा रहे हैं तो यह उन्हीं की देन है। घर से निकलने से पहले अपने माता-पिता को प्रणाम करके ही निकलें। उनके आशीर्वाद से आपका जीवन धन्य हो जाएगा और आप अपने उद्देश्य में सफल होंगे। इतना ही नहीं, संस्कारयुक्त बच्चे ही देश के निर्माण में अहम भूमिका निभा सकते हैं। हमारे धर्मग्रंथों में भी मातृ देवो भवः, पितृ देवो भवः, आचार्य देवो भवः का संस्कार मिलता है। हमें इसे कभी नहीं छोड़ना चाहिए। माता-पिता के प्रति भक्ति, प्रेम, श्रद्धा और निर्विकार सेवा के बिना मनुष्य के अन्तर्निहित शक्तियों का सम्यक विकास बिल्कुल भी संभव नहीं है।
इस पौराणिक कथा से लेनी चाहिए युवाओं काे सीख
इस दौरान एक प्रसंग सुनाते हुए पंडित अनिल शर्मा और चंद्र मोहन जोशी ने बताया कि किस प्रकार एक बार भगवान शंकर जी और पार्वती जी के दोनों पुत्रों कार्तिकेय जी और गणेश जी में होड़ लगी कि, कौन बड़ा? निर्णय लेने के लिए दोनों शिव-पार्वती जी के पास गए तो शिव-पार्वती जी ने दोनों से संपूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करके आने को कहा कि जो पहले आएगा, वही बड़ा माना जाएगा। ये सुनकर भगवान कार्तिकेय तत्काल अपने वाहन मयूर को लेकर पृथ्वी की परिक्रमा करने चले गए, लेकिन भगवान गणेश थोड़ा ध्यान लगाकर सोचने लगे। कुछ देर बाद वो उठे और झट से माता पार्वती और पिता शिव के पास जाकर हाथ जोड़कर बैठ गए। भगवान गणेश ने दोनों की आज्ञा लेकर अपने माता-पिता को ऊंचे स्थान पर बिठाया, उनके चरणों की पूजा की और परिक्रमा करने लगे। एक चक्कर पूरा हुआ तो प्रणाम किया…, दूसरा चक्कर लगाकर प्रणाम किया…, इस प्रकार एक-एक कर भगवान गणेश ने अपने माता-पिता की सात बार परिक्रमा की। पूछने पर गणेश ने जवाब दिया सर्वतीर्थमयी माता…, सर्वदेवमय पिता…। एक ऋषि के पूछने पर भी उन्होंने बताया दिया कि माता-पिता की परिक्रमा के दौरान उन्होंने भी वही सब देखा, जो कार्तिकेय ने देखा। तब से गणेश जी प्रथम पूज्य हो गए। गणेश ने अपने मात-पिता की परिक्रमा कर जीवन में सब कुछ हासिल कर लिया। उसी प्रकार हम सब को अपने माता-पिता की सेवा करने का संकल्प लेना चाहिए।